“वृक्ष-जीव देव स्वरूप” पर आधारित वन्यजीवों की पूजा करने वाले वन-आश्रितों का अनूठा सर्वेक्षण, निष्कर्ष निकला- प्रकृति से लोगों का धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव ही इनके संरक्षित रहने का कारण
![](https://theshor.com/wp-content/uploads/2024/05/BeFunky-design-40-1-2.jpg)
गरियाबंद. भारत में सनातन परंपरा में प्राचीन काल से ही प्रकृति की पूजा की जाती रही है. वृक्ष, वन्य जीव, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को देवताओं के रूप में पूजा जाता है. खासकर आदिवासी और अन्य पारंपरिक वन निवासी आज भी इस परंपरा से जुड़े हुए हैं और इसका निर्वहन भी कर रहे हैं. अब जन समुदायों के बीच वन्यजीव और वन संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा करने के प्रयास में छत्तीसगढ़ वन विभाग मध्य प्रदेश स्थित शोधकर्ता और अवैध शिकार विरोधी विशेषज्ञ की मदद से “वृक्ष-जीव देव स्वरूप” नामक एक सर्वेक्षण के माध्यम से जानकारी इकट्ठा कर रहा है कि कौन से समुदाय किस पौधे और जंगली जानवर की पूजा करते हैं. इस सर्वेक्षण के जरिए वन विभाग संदेश देना चाहता है कि पेड़ और वन्यजीव भगवान का प्रतीक हैं. वैसे तो ये परंपरा हमारी संस्कृति है. हमारी पूजा पद्धति में रची बसी है. लेकिन कहीं ना कहीं लोग आज इसे भूलते जा रहे हैं. अब इसे फिर से जीवित करने का बीड़ा वन विभाग ने उठाया है.
![](https://theshor.com/wp-content/uploads/2024/05/WhatsApp-Image-2024-05-25-at-21.04.12-1024x472.jpeg)
उदंती सीतानदी टाइगर रिजर्व (यूएसटीआर) न केवल दुर्लभ और विलुप्ति की कगार पर खड़े वन्यजीव प्रजातियों की एक बड़ी श्रृंखला का घर है, बल्कि विभिन्न पीवीटीजी (प्रिमिटिव वल्नरेबल ट्राइबल ग्रुप्स) और अन्य वन निवासी समुदायों का भी घर है. जिनका वनों और वन्यजीवों को स्थायी तरीके से संरक्षित करने और उनकी पूजा करने का एक लंबा इतिहास रहा है. इसके अलावा यूएसटीआर महाराष्ट्र को ओडिशा से जोड़ने वाले टाइगर कॉरिडोर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.
अतिक्रमण, अवैध कटाई और शिकार ने बिगाड़ रखा है संतुलन
इन समुदायों से बात करने पर यह देखा जा रहा है कि एक समय हुआ करता था जब शीर्ष मांसाहारी वन्यप्राणी (बाघ, तेंदुए) के साथ-साथ शाकाहारी वन्यप्राणी (जंगली भैंसा, गौर, हिरण, सांभर, कोटरी आदि) बड़ी संख्या में थे, जो वर्तमान में कम हैं. ब्रिटिश काल और 1970 के दशक से पहले, ये क्षेत्र एक गेम रिजर्व था. जिसमें शुल्क के भुगतान पर बाघ (25 रुपये), जंगली भैंसा (200 रुपये), तेंदुए (10 रुपये) सहित जंगली जानवरों के शिकार की अनुमति थी. इसके अलावा, जब इस वन अभ्यारण्य को 1974 में एक अभयारण्य और बाद में 2009 में टाइगर रिजर्व के रूप में अधिसूचित किया गया था, तब यहां बहुत घना जंगल हुआ करता था. रिज़र्व के अंदर सौ से ज्यादा गांव होने के बावजूद, पारिस्थितिकी तंत्र संतुलित होने के कारण मानव-पशु संघर्ष शून्य था. लेकिन अब अवैध शिकार, अतिक्रमण और अवैध कटाई के कारण यह संतुलन गड़बड़ा गया है. इसके अलावा, ओडिशा राज्य के साथ 125 किलोमीटर लंबी छिद्रपूर्ण सीमा ने इन समस्याओं को बढ़ा दिया. उपरोक्त वन अपराधो के कारण भविष्य में मानव-पशु संघर्ष बढ़ सकता है और मिट्टी के कटाव बढ़ने और भूजल स्तर के कम होने सम्बन्धी समस्या को जन्म दे सकती है. क्योंकि यूएसटीआर विभिन्न महत्वपूर्ण नदियों जैसे महानदी, सोंदूर, सीतानदी आदि का उद्गम स्थान भी है. स्थानीय वनवासियों को वन्यजीव संरक्षण अभियान में शामिल करना और उनके पारंपरिक ज्ञान और धार्मिक मान्यताओं का उपयोग करना और इन्हें वन्यजीव संरक्षण की दिशा में संरेखित करना काफी महत्वपूर्ण है.
वन्य जीवन और उनके संरक्षण के प्रति लगाव
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सहित मध्य भारतीय परिदृश्य में बाघ (बाघ देवता) और सांप (नाग देवता) जैसे जंगली जानवरों के मंदिर हैं. इन मंदिरों की उपस्थिति वनवासियों के वन्य जीवन और उनके संरक्षण के प्रति लगाव को दर्शाती है. सर्वेक्षण से बहुत दिलचस्प तथ्य सामने आए हैं. जिसमें-
- भुजिया जनजाति की उप जनजाति नागेश “सर्प” को देव स्वरुप मानते हैं.
- नेताम समुदाय “कछुआ” को देव स्वरुप मानते हैं.
- लोहर- विश्वकर्मा समुदाय “नीलकंठ” (भारतीय रोलर) पक्षी को देव स्वरुप मानते हैं.
- गाढ़ा-जगत “मोर” को देव स्वरुप मानते हैं.
- कमार-पहाड़िया “भालू” को देव स्वरुप मानते हैं.
- भुंजिया- सोरी “बाघ” की पूजा करते हैं.
- गोंड-ओटी “गोही- मॉनिटर लिज़ार्ड” को देव स्वरुप मानते हैं.
- मेहर-कश्यप “जंगली भैंसा” और “जंगली सूअर” को देव स्वरुप मानते हैं.
![](https://theshor.com/wp-content/uploads/2024/05/WhatsApp-Image-2024-05-25-at-21.04.12-1-1024x699.jpeg)
इसके अलावा बरगद पेड़ जो कि महिलाओ द्वारा वट सावित्री के दिन भी पूजा जाता है, कदंब, साजा, पीपल, आंवला रजो मंदिरों और घर-घर में पूजा जाता है, कुंभी, कसई, बेल, महुआ, वन तुलसी जो हर घर में विराजित है, पलाश, कुरवा (इंद्र जौ) जैसी वृक्ष प्रजातियों की भी पूजा की जाती है. ये सर्वेक्षण ग्राम जांगड़ा, कुरूभाटा, पायलीखंड, बम्हनीझोला, उदंती, कोयबा, जुगाड़, अमाड, बड़गांव, बंजारीबाहरा, नागेश, करलाझर, देवझरमली, मोतीपानी और साहेबिन कछार में किया गया है.
सर्वेक्षण का सकारात्मक प्रभाव
सर्वेक्षण और सम्बंधित चर्चाएं वन-आश्रितों के बीच वन्यजीव और वन संरक्षण के प्रति व्यवहारिक परिवर्तन शुरू करने में सहायक रही हैं. अगले चरण में इन गांवों में पूजे जाने वाले वन्यप्राणियों और वृक्षों को चित्रित करने वाली दीवार पेंटिंग (एक भावनात्मक अपील के साथ) बनाई जाएगी. पहले से ही “चारवाहा सम्मेलन” (जिसमें चरवाहों से मौद्रिक पुरस्कारों के बदले में वन और वन्यजीव अपराध पर जानकारी साझा करने का अनुरोध किया गया है) के संगठन ने अवैध लकड़ी की कटाई और अवैध शिकार के मामलों पर जानकारी हासिल करने और अपराधियों को पकड़ने में सकारात्मक परिणाम देना शुरू कर दिया है. जो पैदल गश्त करने वाले कर्मचारियों की कमी और वामपंथी उग्रवाद की उपस्थिति के कारण रिपोर्ट नहीं की जा सकती थी. यानी कहीं ना कहीं ये संदेश मिला है कि प्रकृति को देवतुल्य मानने की धारणा से आज भी कहीं ना कहीं इनका संरक्षण हो रहा है. खासकर वनांचल में लोगों का धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव ही इन अमूल्य धरोहरों के संरक्षण का कारण है.