Adi Shankaracharya Jayanti 2024 : सनातन धर्म को पुनर्जीवित करने वाले जगद्गुरु आदि शंकराचार्य सनातन के आधार स्तंभ, कुरीतियों को दूर कर की थी समभावदर्शी धर्म की स्थापना

Adi Shankaracharya Jayanti 2024. अद्वैत वेदांत के प्रणेता, सनातन धर्म के सर्वोच्च गुरु भगवत्पाद शिवावतार जगद्गुरु भगवान आदि शंकराचार्य का सनातन धर्म में विशेष स्थान है. मान्यताओं के अनुसार आदि शंकराचार्य को भगवान शिव का अवतार माना जाता है. उनका जीवन मानव मात्र के लिए प्रेरणा का स्रोत है. एक प्रकार से सनातन धर्म को पुनर्जीवित करने में बहुत बड़ा योगदान है.

आदि शंकराचार्य भारत के एक महान दार्शनिक और धर्मप्रवर्तक थे. उन्होंने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार दिया. भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएं बहुत प्रसिद्ध हैं. उन्होंने सांख्य दर्शन का प्रधानकारणवाद और मीमांसा दर्शन के ज्ञान-कर्मसमुच्चयवाद का खण्डन किया. आदि शंकराचार्य जी का जन्म सन 508 – 509 ईसा पूर्व को केरल राज्य के कलाडी गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम शिवगुरु था और माता का नाम आर्याम्बा था.
सनातन के प्रचार के लिए चार बार पूरे भारत का पैदल भ्रमण
शंकराचार्य के विचार और उपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं. जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में होते हैं. स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है. इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा. वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार भारतवर्ष में किया. उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों के माध्यम से खण्डित किया. सनातन धर्म के प्रचार के लिए उन्होंने अपने शिष्यों के साथ पैदल पूरे भारत का चार बार भ्रमण किया.

कलियुग के प्रथम चरण में खो चुके और विकृत वैदिक ज्ञानविज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले भगवत्पाद शंकराचार्य की अमोघदृष्टि और अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है.
भारत के चार कोनों में चार मठों की स्थापना
आद्य शंकराचार्य ने भारत के चार कोनों में चार मठों की स्थापना की थी. जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं. जिन पर आसीन संन्यासी शंकराचार्य कहलाते हैं. ये चार मठ वास्तव में सनातन धर्म के केंद्र बिंदु हैं. ये मठ वर्तमान में उत्तराखंड, ओडिशा, कर्नाटक और गुजरात में स्थित है.

- ज्योतिष्पीठ, बद्रिकाश्रम (बद्रीनाथ धाम, उत्तर), वर्तमान शंकराचार्य श्री अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती जी महराज
- गोवर्धनपीठ, (श्री जगन्नाथ पुरी, पूर्व), वर्तमान शंकराचार्य श्री स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी महराज
- श्रृंगेरी पीठ, चिकमंगलूर (शारदाम्बा मंदिर, दक्षिण), श्री स्वामी भारती तीर्थ जी महराज
- शारदापीठ, देवभूमि द्वारका, (द्वारिकाधीश धाम, पश्चिम), वर्तमान शंकराचार्य श्री सदानंद सरस्वती जी महराज

जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य जी सनातन में योगदान
जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य ने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धांत और हिन्दू संस्कृति को पुनर्जीवित करने का कार्य किया. साथ ही उन्होंने अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्त को प्राथमिकता से स्थापित किया. उन्होंने धर्म के नाम पर फैलाई जा रही तरह-तरह की भ्रांतियों को मिटाने का काम किया. आज शंकराचार्य को एक उपाधि के रूप में देखा जाता है, जो समय-समय पर एक योग्य व्यक्ति को सौंपी जाती है.
शंकराचार्य के अद्वैत का दर्शन का सार-
- ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं. हमे जो भी अंतर नज़र आता है उसका कारण अज्ञान है.
- जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है.
- जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने में है.

कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना
भगवान आद्य शंकराचार्य आठ वर्ष की अवस्था में गोविन्द नाथ के शिष्य बन सन्यासी बने थे. माना जाता है कि उन्होंने वर्तमान के मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में नर्मदानदी के तट पर स्थित ओंकारेश्वर धाम में दीक्षा ली थी. इसके बाद उन्होंने फिर वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा (बिहार) में जाकर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना और मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना आदि कार्य आद्य शंकराचार्य जी के महत्त्व को और बढ़ा देता है. उन्होंने दशनामी संप्रदाय (सरस्वती, गिरि, पुरी, बन, भारती, तीर्थ, सागर, अरण्य, पर्वत और आश्रम ) की सस्थापना की. साथ ही हिंदू धर्मगुरू के रूप में हिंदुओं के प्रचार प्रसार और रक्षा का कार्य सौंपा और उन्हें अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी बताया. इसके बाद उन्होंने बद्रीनाथ धाम में अपने शिष्यों को उपदेश देकर चारों मठों की बागडोर सौंपी. जिसके बाद उन्होंने 32 साल की उम्र में देह त्यागकर समाधि ले ली. यदि उन्हें सनातन धर्म का आधार स्तंभ कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.